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Showing posts from January, 2020

मंदिरों की नागर शैली (NAGAR SAILI)

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जगन्नाथ मंदिर पुरी ओडिशा           नागर शैली        मंदिरो की नागर शैली हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत माला    विशेषत: नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक  विस्तृत है।  'नागर' शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इन्हे नागर की संज्ञा प्रदान की गई।            नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है । विकसित नागर मंदिरों में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।                            इसमें मूर्ति के गर्भगृह के ऊपर पर्वत-शृंग जैसे शिखर की प्रधानता पाई जाती है। कहीं चौड़ी समतल छत के ऊपर उठती हुई शिखा सी भी दिख सकती है। माना जाता है कि यह शिखर कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् अधिक विकसित हुई. कई मंदिरों में शिखर के स्वरूप में ही गर्भगृह तक को समाहित कर लिया गया है।   ओडिशा के लगभग सभी मंदिर नागर शैली में ही निर्मित है।   नागर शैली के मंदिरों के आठ प्रमुख अंग होते है -          अधिष्ठा

द्रविड़ शैली (DRAVID SHAILI)

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मंदिर स्थापत्य कला  द्रविड़ शैली मिनाक्षी मंदिर मदुरै         भारत में मंदिर स्थापत्य कला की तीन प्रमुख शैलिया मिलती है जिनकी स्थिति एवं विस्तार निम्न है:-          हिमालय से विंध्यांचल तक - नगर शैली      विंध्यांचल से कृष्णा नदी तक- बेसर शैली      कृष्णा नदी से कन्याकुमारी - द्रविड़ शैली        द्रविड़ शैली  भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण है  इसकी स्थापना पल्लव काल में हुई। इस शैली की शुरुआत 8 वी सताब्दी में हुई ये शैली राजाओं के नाम पर थी जैसे महेंद्र वर्मन शैली मामल्य शैली, राजसिंह शैली, नंदिवर्मन शैली आदि। चोल शासन काल में इस शैली का अच्छा विकाश हुआ परन्तु विजय नगर काल के बाद इस शैली का पतन होना प्रारम्भ हो गया। चोल शासन काल में ही द्रविड़ वास्तुकला में चित्रकला व मूर्ति कला का मिश्रण हो गया।  द्रविड़ शैली के मंदिरो की मुख्य विशेषताएं :- मंदिर बहुमंजिला होते थे  प्रवेश द्वार को गोपुरम कहते है।  गोपुरम भव्य व चित्रकला उक्त होते थे  मंदिर के चारो तरफ एक चारदीवारी होती थी जिसे  प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है  मंदिर का आकार  पिरामिड नुमा होता है  ज

दिलवाड़ा मंदिर माउन्ट आबू (DILWARA TEMPLE)

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दिलवाड़ा मंदिर माउन्ट आबू     प्रसिद्ध जैन मन्दिर  का निर्माण कार्य गुजरात के चालुक्य वंश (सोलंकी वंश) के शासक भीम प्रथम के सामंत विमल शाह ने राजस्थान के आबू पर्वत पर करवाया।  निर्माण कार्य 11 वी  व 13 वी ईस्वी में करवाया गया।         मंदिर की नक्काशी दार छत, द्वार व खंभे स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने है। मंदिर के निर्माण में हाथियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही 1200 मीटर की ऊंचाई पर संगमरमर को पहुँचाने का कार्य हाथियों द्वारा ही अंजाम दिया गया।         मंदिर परिसर में पांच अलग अलग मंदिर है प्रत्यके मंदिर पांच जैन तीर्थांकरों को समर्पित है।  श्री महावीर स्वामी मंदिर: 24  वे जैन तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी को समर्पित है इसका निर्माण1582 ईस्वी में किया गया।  विमल वसही मंदिर :  सबसे प्राचीन मंदिर है 1031 इस्वी में इसका निर्माण विमल शाह द्वारा किया  गया ये मंदिर जैन धर्म के प्रथम तीर्थांकर श्री ऋषभ देव (आदिनाथ) को समर्पित है।  श्री पार्श्वनाथ मंदिर : 23 वे तीर्थांकर श्री पार्श्वनाथ जी को समर्पित है। दिलवारा मंदिरो में सबसे ऊँचा है इसका निर्माण 1458 -59  ईस्वी मे

सांची स्तूप : भारत का प्रसिद्ध बौद्ध स्मारक (SANCHI STOOP)

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   साँची स्तूप                                                                              मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित है। प्रारंभिक निर्माण सम्राट अशोक ने ३०० बी सी में करवाया था एवं इसकी बेदिका का निर्माण सुंग कल में किया गया था।  स्तूप का निर्माण बौद्ध अध्ययन एवं शिक्षा केंद्र के रूप में किया गया था। प्रारम्भ में स्तूप का निर्माण ईंटो से  किया गया था बाद में पत्थरों से ढका गया। सर जान मार्शल के नेतृत्व में १९१२ से १९१९ तक साँची के स्तूप की मरम्मत करवाई गयी।   यहाँ पर कुल  तीन स्तूप है।  * प्रथम स्तूप को महास्तूप कहा जाता है जिसमे महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे है यह स्तूप भारत की सबसे पुरानी शैल संरचना है।   * द्वितीय स्तूप में धर्म प्रचारकों के अवशेष है  * तृतीया स्तूप में बुद्ध के दो शिष्यों के अवशेष है       स्तूप में बुद्ध के जन्म बोधिसत्व की प्राप्ति एव महापरिनिर्वाण के प्रतीक अंकित है।       साँची के स्तूप और उसके चारो तरफ बने भव्य तोरण द्वार और उनपर की गयी मूर्तिकारी उत्कृठ वास्तुकला के सर्वोत्तम उधाहरणो में एक है। वर्ष 198

तंजावुर का राज राजेश्वरम मंदिर या ब्राहीदेश्वर मंदिर या थंजावुर पेरिया कोविल

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     त मिलनाडु के थंजावुर जिले में स्थित यह शिव मंदिर  चोल वंश के प्रतापी शासक राजराज प्रथम (राजराज प्रथम शिव का अनन्य उपासक था उसको शिव पादशेखर की उपाधि मिली थी) द्वारा वर्ष 1010  ईश्वी में निर्मित द्रविड़ शैली स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। कावेरी नदी के किनारे पर बना ये मंदिर पूर्णतः ग्रेनाइट धातु से निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है।       मंदिर का गुम्बद अष्ट भुजा बाला है इसे विशाल पत्थर पर रखागया है जिसका बजन ८१ तन है ये  216 फ़ीट ऊँचा है जिसे "दक्षिण मेरु" के नाम से भी जाना  जाता है और इसको तंजावुर में किसी भी स्थान से देखा जा सकता है। मुख्य द्वार पर नंदी की प्रतिमा विराजमान है १६ फ़ीट लम्बी एवं १३ फ़ीट ऊँची है जो एकाश्म पत्थर से निर्मित है। पिरामिड के आकार के मध्य 13 मंजिलें है । उतकृष्टता को देखते हुए मंदिर को UNESCO की विश्व धरोहर में शामिल किया गया  है।      वर्ष 2010 में मंदिर की 1000 वी वर्षगांठ के दौरान देश भर से लाखो श्रद्धालुओं का मंदिर में आगमन हुआ इसी उपलक्ष में भारतीय डाक ने 1 रूपए की डाक टिकट जारी की भारतीय रिजर्व बैंक ने 5 रूपए