मंदिरों की नागर शैली (NAGAR SAILI)
मंदिरो की नागर शैली हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत माला विशेषत: नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक विस्तृत है। 'नागर' शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इन्हे नागर की संज्ञा प्रदान की गई।
नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है । विकसित नागर मंदिरों में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।
इसमें मूर्ति के गर्भगृह के ऊपर पर्वत-शृंग जैसे शिखर की प्रधानता पाई जाती है। कहीं चौड़ी समतल छत के ऊपर उठती हुई शिखा सी भी दिख सकती है। माना जाता है कि यह शिखर कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् अधिक विकसित हुई. कई मंदिरों में शिखर के स्वरूप में ही गर्भगृह तक को समाहित कर लिया गया है। ओडिशा के लगभग सभी मंदिर नागर शैली में ही निर्मित है।
नागर शैली के मंदिरों के आठ प्रमुख अंग होते है -
अधिष्ठान - मूल आधार, जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
शिखर - मंदिर का शीर्ष भाग अथवा गर्भगृह का उपरी भाग कलश - शिखर का शीर्षभाग, जो कलश ही या कलशवत् होता है।
आमलक - शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का वर्तुलाकार भाग
ग्रीवा - शिखर का ऊपरी ढलवाँ भाग
कपोत - किसी द्वार, खिड़की, दीवार या स्तंभ का ऊपरी छत से जुड़ा भाग, कोर्निस
मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग
जंघा - दीवारें (विशेषकर गर्भगृह की दीवारें)
द्रविड़ शैली में निर्मित लिंग राज मंदिर भुबनेश्वर |
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