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कुतुबमीनार, क़ुतुब-उल-इस्लाम मस्जिद, अलाइ दरवाजा

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कुतुबमीनार - कुतुबमीनार  का निर्माण सूफी संत वख्तियार काकी की स्मृति में कुतुबुद्दीन ऐवक  ने वर्ष ११९७  ईस्वी में प्रारम्भ करवाया था परन्तु उसके दामाद इल्तुतमिश ने इसे पूर्ण करवाया था। इसकी रुपरेखा पूर्णतः इस्लामिक है।  प्रारम्भ में यह चार मंजिली ईमारत थी। 1369 ईस्वी में  विजली गिरने की वजह से इसकी चौथी मंजिल ढह गयी थी। फिरोजशाह तुगलक ने तत्पश्चात इसकी दो और मंजिलो का निर्माण करवाया।  1505 ईस्वी में भूकंप की वजह से फिर इसको छति पहुंची परिणाम स्वरुप सिकंदर लोदी ने इसकी ऊपरी मंजिल की मरम्मत करवाई थी। कुतुबमीनार लाल बलुआ पत्थर से बनी है इसकी ऊंचाई 72.5  मीटर है शिखर का व्यास 2.75 मीटर व आधार का व्यास 14.32 मीटर है।  क्योंकि इसका निर्माण व मरम्मत का कार्य विभिन्न कालो में हुआ है इसलिए इन समयों के निर्माण का प्रभाव मीनार पर अलग से दृष्टिगत होता है। स्थापत्य की उत्कृष्टता को देखते हुए कुतुबमीनार को UNESCO की विश्व धरोहर में शामिल किया गया है।  कुतुबमीनार की बालकनी में वास्तविक मेहराव की जगह कड़ी दर मेहराव का प्रयोग किया गया है।           मेहराव -दरवाजे पर एक अर्ध गोलाकार संरचना हो

ताजमहल (TAJMAHAL)

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उत्तरप्रदेश के आगरा जिले में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर मुग़ल शासक शाहजहाँ द्वारा अपनी पत्नी मुमताज महल की यादगार के रूप में निर्मित किया गया था।  ताजमहल १७ हेक्टेयर (42 एकड़ ) में फैला हुआ है।  इसका निर्माण कार्य 1631 ईस्वी से प्रारंभ होकर  1651 ईस्वी में संपन्न हुआ।  इसके अन्य नाम " वफादार आशिक का खिराज " भी है।  ताजमहल के मुख्य स्थापत्यकार उस्ताद अहमद लाहौरी थे जिनको नादिर - उल - असरार की उपाधि से नवाजा गया था। जबकि प्रधान मिस्त्री उस्ताद ईशा थे।  ताजमहल के निर्माण के लिए मिस्त्री, पत्थर काटने वाले , पत्थर जड़ने वाले चित्रकार लेखक गुम्बद बनाने बाले कारीगर मध्य एशिया और ईरान से भी मंगाए गए थे। निर्माण सामिग्री सम्पूर्ण भारत, मध्य एशिया से लायी गयी सफ़ेद मकराना संगमरमर जोधपुर से लाया गया था जबकि जड़ के लिए कीमती पत्थर बगदाद , मिश्र , चीन, रूस , गोलकोंडा और फारस से आये थे।  ताजमहल इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का अद्भुत नमूना है और यह हुमायूँ के मकबरे से प्रेरित है। ताजमहल का प्रवेश द्वार 30 मीटरऊँचा है।  इसका निर्माण कार्य 1648  में पूर्ण करवाया गया था। प्रवेश द्वा

COVID-19 उत्पत्ति, प्रभाव व वचाव

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कोरोना वायरस का नाम इसके आकार से आया है। इलेक्ट्रोनिक माइक्रोस्कोप से जब वायरस की संरचना का निरिक्षण किया गया तो इसकी संरचना मुकुट या सौर कोरोना जैसी दिखाई दी । अधिकांश कोरोना वायरस समूह के सदस्य संक्रमण के दौरान फ्लू जैसे लक्षण उत्पन्न करते है जिनमे से  MERS-Cov (Middle East Respiratory Syndrome-Coronavirus) SARS-Cov (Severe Acute Respiratory Syndrome- Coronavirus) मनुष्य में संक्रमण के दौरान श्वसन क्रिया को बाधित करते है। 31 दिसम्बर २०१९ को चीन में विश्व स्वास्थ संगठन के कार्यालय को एक अज्ञात बीमारी के बारे में सूचित किया गया जिसे प्रारंभ में nCov (Novel Coronavirus) नाम दिया गया और  बाद में विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे  COVID-19 (Corona Virus Disease 2019) से नामित किया। इसके के लक्षण MERS व SARS के समान ही होते है ११ मार्च २०२० को विश्व स्वास्थ संगठन ने COVID-19 को वैश्विक महामारी घोषित करते हुए संक्रमित देशो को  अतिशीघ्र र्कायवाही करने व लोगो के जीवन को वचाने का आवाहन किया । मनुष्य में पाए गए कोरोना वायरस का प्रोटीन कोड चमगादड़ व सर्प के प्रोटीन कोड से मिलता है

नन्द वंश (NAND VANSH)

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शिशुनाग वंश - (४१२-३४४ ईसा पूर्व) के अंतिम शासक नन्दिवर्धन के पश्चात महापद्म नन्द ने नंदवंश की नीव डाली । नन्द वंश की समयावधि ३४४-३२३ ईसा पूर्व मानी गयी है इस वंश के सवसे प्रतापी शासक महापद्मनंद हुए थे । महापद्म नन्द - महावोधि वंश में इन्हें उग्रसेन कहा गया । जैन ग्रंथो में इन्हें शिशुनाग वंश के अंतिम राजा महानंदिन की नाई जाति की स्त्री से उत्पन्न बताया गया है । पुराणों में महापद्म नन्द को सर्व क्षत्रांतक (सभी क्षत्रियों का अंत करने वाला ) की उपाधि दी गयी। महापद्म नन्द ने एकछत्र व एकराट की उपाधि भी धारण की । हाथी गुम्फा अभिलेख में इसको कलिंग का भी स्वामी बताया गया है ।  महापद्म नन्द का राज्य पंजाब से बंगाल, मालवा , मध्यदेश तथा गोदावरी क्षेत्र तक फैला था । हाथी गुम्फा अभिलेख में नन्दों द्वारा नहर बनवाने और जिनसेन की प्रतिमा ले जाने का भी जिक्र है इससे पता चलता है की महापदमं नन्द जैन धर्म के अनुयायी थे । 12 वी सदी के लेख में नदों द्वारा कुंतल जीते जाने का भी उल्लेख है । महापद्म नन्द ने सर्व प्रथम उद्ध में हाथियों का उपयोग किया ।  प्रसिद्ध व्याकरण आचार्य और अष्टाध्य

हर्यक वंश (HARYAK VANSH -MAGADH SAMRAJYA)

                                                               (अ) हर्यक वंश  समयावधि ५४४-४१२ ईसा पूर्व (ब ) शिशुनाग वंश - ४१२-३४४ ईसा पूर्व (स) नन्द वंश - ३४४-३२३ ईसा पूर्व (द) मौर्य वंश - ३२३-१८४ ईसा पूर्व हर्यक वंश के तीन प्रमुख शासक हुए :- 1- विम्बसार - बौध ग्रंथो में इसके पिता का नाम वोधिश मिलता है । जो राजग्रीह का शासक था। विम्बसार ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए वैवाहिक संबंधो की नीति अपनायी। इसकी कुछ प्रमुख वैवाहिक संवंध निम्न है :-       चेलना - यह लिक्ष्वी के राजा चेटक की पुत्री थी।  इसके साथ विवाह से विम्बसार ने वैशाली जैसे व्यापारिक केंद्र पर प्रभाव स्थापित किया ।       कोशल देवी या महाकोशला -  कोशल नरेश प्रशेनजित की वहिन थी। इससे विवाह से विम्बसार को काशी का कुछ भाग प्राप्त हुआ था । जहाँ से 1 लाख मुद्रा की वार्षिक आय प्राप्त होती थी ।     क्षेमा - मध्यदेश की राजकुमारी थी। इस संवंध से उसने अवन्ती पर नियंत्रण स्थापित किया । विम्बसार ने अंग महाजनपद के शासक व्रह्म्दत को पराजित कर मगध में मिला लिया और अपने पुत्र अजातशत्रु को वहां का उपराजा वनाया । विम्बसार

संसद भवन का निर्माण (INDIAN PARLIYAMENT)

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        भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भारतीय संसद इस लोकतंत्र का मंदिर है । नई  दिल्ली स्थित भारतीय संसद विश्व की वास्तुकला का सर्वोत्तम  नमूना है ।     संसद भवन की वास्तुकला की अभिकल्पना सर अडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने  की । भवन की आधार सिला 12 फरबरी १९२१  को दिल्ली में द ड्यूक आफ कनाट ने रखी। इंडिया गेट की बास्तुकला की अभिकल्पना लुटियंस ने ही की थी और इसकी आधार शिला  द ड्यूक ऑफ़ कनाट ने ही रखी थी । भवन का निर्माण 6 वर्ष में पूर्ण हुआ तत्पश्चात तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड इरविन ने 18 जनवरी १९२७ में भवन का उद्घाटन किया ।     भवन एक विशाल वृत्ताकार भवन है जिसका व्यास  560फुट (170.69 मीटर) है परिधि 536.33 मीटर और कुल छेत्रफल लगभग छ : एकड़ में फैला हुआ है । भवन के चारो ओर खुले वरामदे में कुल 144 स्तम्भ है और प्रत्येक स्तम्भ की ऊंचाई 27 फुट (8.23 मीटर )। संसद के कुल 12 द्वार है जिसमे द्वार नम्बर 1 मुख्य द्वार है ।    भवन में विशाल वृत्ताकार केंद्रीय कक्ष है 15 अगस्त १९४७ को ब्रिटिश सासन द्वारा भारत को सत्ता का हस्तानान्त्रण इसी कक्ष में हुआ था । इस कक

कैलास मंदिर एलोरा (ELORA CAVES)

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       महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से 25 किलोमीटर की दुरी पर स्थित एलोरा  की कुल 34  गुफाओ की गुफा नंबर  16  में  पहाड़ को काटकर बनाया गया विशाल  मंदिर है यह विश्व का विशालतम एकाश्म मूर्ति का मंदिर है ।  जिसे कैलाश  मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर शिव भगवान् को समर्पित है मंदिर का निर्मार्ण (757 - 773 इस्वी ) राष्ट्र कूट शासन काल के शासक कृष्ण प्रथम के कार्य काल में हुआ। इसको पूर्ण करने में लगभग 150 वर्ष का समय एवं 7000 मजदूर लगे । मंदिर को बनाने के दौरान लगभग 40 हजार टन पत्थर को काटा गया।  एलोरा गाँव के निकट स्थित होने के कारण इन गुफाओं का का नाम एलोरा गुफाए पड़ा,  गुफाए  बौध धर्म  , हिन्दू धर्म एवं  जैन धर्म को समर्पित होने के कारण यहाँ सभी धर्मो के श्रधालुओं की भीड़ रहती है । गुफा नम्बर  13 से 29 तक हिन्दू धर्म को समर्पित है ।   मंदिर को हिमालय के कैलाश पर्वत के मंदिर का रूप देने का भरपूर प्रयास  किया गया । मंदिर का निर्माण पर्वत की चोटी से पथरों को तरास  कर प्रारंभ किया गया था। मंदिर में विशाल शिव लिंग है।  शिव लिंग की तरफ मुंह करके बैठे नंदी की प्रतिमा है।